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Thursday 4 August 2011

घाघ बाघ की मेमना-कथा

कनक तिवारी


प्रिय पाठकों,
इस बार का लेख आपसे संवाद करने के लिए है. यदि आपको कोई बताए कि अमुक जगह नरेन्द्र मोदी का धर्मनिरपेक्षता के समर्थन में व्याख्यान होने वाला है. या मुकेश अंबानी अपरिग्रह के समर्थन में प्रचार कर रहे हैं. अथवा बाबा रामदेव किसी ब्लेड कंपनी का ब्रांड अम्बेसडर बनने पर सहमत हो गए हैं. अथवा विजय माल्या को अखिल भारतीय मद्य निषेध अमल समिति का अध्यक्ष बना दिया गया है. तब आपको कैसा लगेगा? ठीक वैसा ही आपको तब क्यों नहीं लगता जब कुदरती मासूम चेहरे की आड़ में सबको राजनीतिक दांव में चित करने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह यह कहते हैं कि जन लोकपाल बिल तो संसद के अधिकार में है. देश में किसी को हक नहीं है कि वह संसद के मुकाबले अपनी राय को तरजीह दे.

संसद आखिर है क्या? देश के कोई 542 लोकसभा सदस्यों को संविधान की मंशा के अनुसार हर पांच साल में गठित किया जाने का प्रावधान है. ऐसा संविधान के प्रक्रिया वाले हिस्से में लिखा है. संविधान के प्रारंभ में ही लेकिन यह लिखा है कि हम भारत के लोग अपना यह संविधान खुद को आत्मार्पित करते हैं.

विश्व में भारत का संविधान इस अर्थ में अद्भुत है कि उसे आज़ादी मिलने के पहले से ही भारतीय देशभक्तों ने मिलकर बनाना शुरू कर दिया था. उसे आज़ादी मिलने के बाद 26 नवम्बर 1949 को पूरा किया गया. फिर उसे 26 जनवरी 1950 से लागू किया गया. संविधान यह कहीं नहीं कहता कि जनता एक बार जनप्रतिनिधि को चुनकर संसद में पहुंचा दे तो फिर उसे पांच वर्ष तक मुंह पर पट्टी बांधकर रखना होगा.

कांग्रेस के एक बड़बोले प्रवक्ता मनीष तिवारी देश की जनता को गैर निर्वाचित तानाशाह कहते हैं जिसे सांसदों को नियंत्रित करने का अधिकार नहीं है. कांग्रेस के मशहूर वकील प्रवक्ता अभिषेकमनु सिंघवी भी कहते हैं कि विधायन की प्रक्रिया से नागर समाज का कोई लेना देना नहीं है. वह संसद की सार्वभौमिकता का सवाल है. उनसे भी ज़्यादा मशहूर वकील और काबीना के सबसे तेज़ तर्रार मंत्री कपिल सिब्बल का चेहरा फलसफाई अंदाज़ में मुस्कराहट और व्यंग्य का कॉकटेल पीते हुए ताना कसता है कि जनता के कहे पर संसद को ही हुक्मनामा चस्पा करने का अधिकार है.

जन आंदोलनों के प्रहार से बचने के लिए मौजूदा केन्द्र सरकार ने कानून मंत्री बदलकर एक और बेहतर वकील सलाम खुर्शीद को मंत्रालय का भार सौंप दिया है. उनके अतिरिक्त अपने ज़माने के बड़े वकील पी. चिदंबरम गृह मंत्रालय की नाजुक जिम्मेदारी संभाल ही रहे हैं. कुछ और वकीलों को सांसदों में गिन लिया जाए तो डॉ. मनमोहन सिंह का नया कुनबा सरकार बनाम जनता के युद्ध में कानून दां वकील सेनापतियों के भरोसे है.

यदि कोई कहे कि फिल्मों में अश्लीलता का सवाल फिल्म निर्माताओं के संघ को सौंप दिया जाना चाहिए. खिलाड़ियों में नशीली दवा लेने का मामला अंतर्राष्ट्रीय ड्रग माफिया को सलाह के लिए सौंप देना चाहिए. आदिवासियों और किसानों की जबरिया जमीनें उद्योगपतियों द्वारा छीने जाने का विवाद उद्योगपतियों के संगठन फिक्की के हवाले कर देना चाहिए. जिला कलेक्टर के आदेश पर गोली चलाने के आदेश की वैधता की जांच ए. डी. एम. या एस. डी. एम. से करानी चाहिए. या देश की कोयला नीति को बनाने का अधिकार कोयला माफिया को ही सौंप देना चाहिए. तो आपको कैसा लगेगा?

यदि देश की जनता की आकांक्षा का जन लोकपाल बिल संसद के हवाले कर देने का मासूम तर्क जनता नहीं समझेगी तो संसद की भूमिका को लेकर महात्मा गांधी ने जो टिप्पणियां की हैं, वे इतिहास के आले से मिटा दी जाएंगी. संसद का अर्थ उसकी सर्वसम्मति से यदि हो तो प्रधानमंत्री के तर्क से सभवतः पूरी असहमति नहीं हो सकती. तब भी जनता को संसद के विवेकाधिकार पर सवाल पूछने का हक तो होगा. ऐसा अधिकार देश के संविधान न्यायालयों को तो है ही. लेकिन यदि संसद का अर्थ सांसदों के बहुमत से है तो संसद की सार्वभौमिकता, प्रामाणिकता और वैधता की तुरही बजाते रहने से क्या होगा?

सरकारी कुनबा यह जानता है कि चाहे कुछ हो जाए वह अपने बहुमत के बल पर संसद में जैसा चाहे वैसा अधिनियम पास करा लेगा. इसका ही तो विरोध अन्ना हजारे के नेतृत्व में पूरा देश कर रहा है. घरों में शादियां बहुमत के आधार पर तय नहीं होतीं. किस कब्रिस्तान में मरहूम को सुपुर्देखाक किया जाए इसके लिए जम्हूरियत में बहुमत के कानून लागू नहीं होते. बच्चे का नामकरण संस्कार बहुमत के आधार पर नहीं होता. कौन सा मंदिर किस इलाके में बनवाया जाए इसका फैसला भी बहुमत नहीं करता. कौरवों ने द्रौपदी का चीर हरण या पांडवों ने द्वूत क्रीड़ा में पराजय का कृत्य बहुमत के आधार पर नहीं किया था. समाज में एक तरह की सर्वानुमति होती है. वह संसद में दिखाई दे तो जनता उसे स्वीकार कर सकती है.  
 
जिस संसद में देश की परमाणु नीति बहुमत के कथित आधार पर अमरीका के सामने घुटने टेक देती है. बहुमत के आधार पर हुकूमत चलाने वाली सरकार हर तीन माह में महंगाई कम करने का झूठ बोलती है. हर चार माह में पेट्रोल, डीज़ल और रसोई गैस की कीमतें बढ़ा देती है. वह उद्योगपतियों से कदम ताल करती हुई किसानों और गरीबों की आय का जरिया तक छीन लेती है. जो बस्तर के मासूम आदिवासी बच्चों के हाथों में इसलिए बंदूकें पकड़ा देती है ताकि वे अपने ही स्वजनों की छाती छलनी कर सकें. उस देश की सरकारें अर्थात काबीना के मंत्री और उनके ढिंढोरची इस देश के इतिहास के गले में यह तर्क ठूंस रहे हैं कि संसद का सार्वभौमिक अधिकार जनता की पीठ पर पड़ता हुआ वह कोड़ा है, जिसे फटकारने से मध्ययुग के सामंतों या अरब देशों के सुल्तानों का आतंक जनता को महसूस करना चाहिए.

गांधी ने कहा था अंगरेज़ी पद्धति की संसद एक वेश्या है. इसलिए उसे भारत में नहीं लाया जाना चाहिए. बड़ी मुश्किल से यह शब्द उन्होंने संभवतः एनी बेसेंट के कहने से हटा दिया था. लेकिन इसके बावजूद उस मसीहा में संसद के गठन और काम को लेकर वह कसैलापन बाकी था जो पूरे जीवन गांधी को इस घबराहट से दो चार करता रहा कि भारत का क्या संसदीय भविष्य होगा.

यह गांधी ने ही कहा था कि संसद एक नर्तकी है जो प्रधानमंत्री के इशारे पर नाचती है. उसे प्रधानमंत्री के बहुमत के कारण जिस तरह चाहे इस्तेमाल किया जा सकता है. यह भी गांधी ने कहा है कि अधिकांश सांसद अपनी राय तो व्यक्त ही नहीं कर पाते. वे एक तरह के सत्तानशीन अनुशासन में बंधे होते हैं और उनका काम सरकारी विधेयकों के पक्ष में केवल हाथ उठाने तक सीमित होता है.

अपनी महान पुस्तक ‘हिन्द स्वराज‘ में गांधी का यह कथन जन लोकपाल विधेयक बनाने की पृष्ठभूमि में देश को पढ़ना और सोचना चाहिए-‘पार्लियामेन्ट को मैंने वेश्या कहा, वह भी ठीक है. उनका कोई मालिक नहीं है. उनका कोई एक मालिक नहीं हो सकता. लेकिन मेरे कहने का मतलब इतना ही नहीं है. जब कोई उसका मालिक बनता है-जैसे प्रधानमंत्री-तब भी उसकी चाल एक सरीखी नहीं रहती. जैसे बुरे हाल वेश्या के होते हैं, वैसे ही सदा पार्लियामेन्ट के होते हैं. प्रधानमंत्री को पार्लियामेन्ट की थोड़ी ही परवाह रहती है. वह तो अपनी सत्ता के मद में मस्त रहता है. अपना दल कैसे जीते इसी की लगन उसे रहती है. पार्लियामेन्ट सही काम कैसे करे, इसका वह बहुत कम विचार करता है. अपने दल को बलवान बनाने के लिए प्रधानमंत्री पार्लियामेन्ट से कैसे कैसे काम करवाता है, इसकी मिसालें जितनी चाहिये उतनी मिल सकती हैं. यह सब सोचने लायक है.‘

लोक धर्म से लोकमत उपजता है. लोकमत लोकसभा का गठन करता है. लोकसभा को लोकनीति लागू करने का संवैधानिक आदेश होता है. इसमें कहीं भी सरकार जैसा कोई शब्द नहीं होता. लोकसभा में बहुमत का अंकगणित होता है. अंकगणित से समाजशास्त्र का कोई रिश्ता नहीं होता. जनता विचार का विश्वविद्यालय है. समाज कुलपति है. सांसद लोक विश्वविद्यालय के छात्र होते हैं. उन्हें लोक विश्वविद्यालय से डिग्रियां मिल सकती हैं. डिग्रियों के आधार पर मंत्री बनने की नौकरियां मिल सकती हैं. लेकिन ये डिग्रियां छीनी भी जा सकती हैं. सांसद लोक विश्वविद्यालय से रेस्टिकेट भी किए जा सकते हैं.

सांसदों की इकाई के समूह को संसद कहा जाता है. संसद का अर्थ सदन या घर से भी होता है. घर में बुजुर्गों की नीति, मां का मातृत्व, पिता की कमाई और बच्चों की किलकारियां भी होती हैं. देश के कुछ चुनिंदा वकील मंत्रियों और सांसदों का चोला ओढ़कर अपने ज्ञान की शेखी उस भारतीय जनता के सामने बघार रहे हैं जिस जनता ने उन्हें पैदा किया है.

एक बहुत प्रतिभाशाली वकील और खानदानी राजनीतिज्ञ सिद्धार्थ शंकर राय पर यह आरोप लगता है कि उन्होंने इंदिरा गांधी को गुमराह कर देश में आपातकाल लगवा दिया. एक नए मंत्री सिद्धार्थ बाबू का ताजा संस्करण बन रहे हैं. इंदिरा गांधी तो खानदानी राजनीतिज्ञ थीं और बहुत साहसी भी. उन्होंने अमरीका की अनदेखी करते हुए अपने दमखम पर बांग्लादेश बनवा दिया.

मनमोहन सिंह को इंदिरा गांधी का साहसी उत्तराधिकारी मानने की भूल इतिहास कभी नहीं करेगा. वे जन लोकपाल विधेयक से भले बाहर हों अमरीका की गिरफ्त से नहीं हैं. उन्हें मासूम समझने का भ्रम जिन्हें है, उन्हें राजनीति का ककहरा फिर से पढ़ना चाहिए. जनता को वह नीति कथा याद होगी जब एक मेमना शेर का इसलिए शिकार हो गया था कि उसने विनम्र प्रतिवाद किया था कि वह तो उस निचली जगह से पानी पी रहा है, जहां नाले के ऊपरी हिस्से से पानी वह बाघ पी रहा है.

RAVIWAR.COM - http://raviwar.com/news/575_clever-lion-and-manmohan-singh-kanak-tiwari.shtml

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